Tuesday 25 June 2013

पन्ना एवं नीलम क़ी उत्पत्ति कथा एवं उपयोगिता

पन्ना (Emerald)

यह रत्न बुध ग्रह से सम्बंधित दोष के निवारण हेतु प्रयुक्त होता है. यह मात्र दो ही तरह का होता है. एक गहरा हरा एवं एक हल्का हरा. यह कार्बन एवं जलाश्म का यौगिक होता है. औषधि के रूप में इसका सीधा प्रभाव फेफड़ा एवं श्रोणी मेखला (Pelvic Girdle) पर होता है. नसों में गांठ (Clot) पड़ जाने पर इससे इलाज़ किया जाता है. इस प्रकार यह स्मरण शक्ति क़ी वृद्धि एवं आयु वृद्धि में बहुत सहायक होता है. पौराणिक मतानुसार इसे यमराज ने अपनी बहन यमुना क़ी कालीय नाग के ज़हर से रक्षा के लिए कवच रूप में प्रदान किया था. मिश्र देश के पश्चिमी तट पर इसकी उत्पत्ती मानी जाती है. पुराणों के अनुसार बुध का जन्म भी मिश्र देश जिसका प्राचीन नाम कुलिककेतु है, में हुआ था. इस रत्न का परीक्षण भी हीरा के समान ही होता है. यह एक तरह का शीतविष भी है. कहा जाता है यमराज ने इसे उपहार के रूप में वासुकी से प्राप्त किया था. इसका एक नाम तार्क्ष्य भी है.
यद्यपि यह रत्न बुध के लिए प्रयुक्त होता है. किन्तु यदि बुध किसी भी प्रकार मंगल से सम्बन्ध बनाता है तो पन्ना का कोई भी प्रभाव नहीं होगा. किन्तु यदि बुध ग्रह केतु के साथ या दृष्ट है तो इसका प्रभाव सौ गुणा बढ़ जाता है. राहू या शनि के साथ बुध क़ी युति या दृष्टि हो तो पन्ना धारण न करें. शेष ग्रहों से युति होने पर पन्ना प्रभावी होता है. इसे हमेशा सोने क़ी अंगूठी में ही धारण करना चाहिए. दाहिने हाथ क़ी सबसे छोटे अंगुली में इसे बुध वार को धारण करते है. आश्विन, मार्गशीर्ष, वैशाख माह, कृतिका, चित्रा, मूल एवं धनिष्ठा नक्षत्रो में इसे धारण न करें. इसके लिए सबसे श्रेष्ठ नक्षत्र पुनर्वसु है. किन्तु उस नक्षत्र में कोई अन्य पाप ग्रह न हो. पन्ना का शुभ प्रभाव चौबीस ghante में ही बुध क़ी अन्सात्मक युति या भोग के आधार पर प्रकट हो जाता है. इसी तरह इसका अशुभ प्रभाव भी प्रकट होता है. किन्तु यदि इसका विपरीत प्रभाव हुआ तो पांचवें वर्ष में लगभग परिवार का प्रत्येक सदस्य गंभीर वीमारी से ग्रस्त हो जाता है. और उसके बाद अगले सत्रह वर्षो तक निरंतर उपद्रव होते रहते है. इसके अशुभ प्रभाव को टालने के लिए वर्तुल नग धारण करना चाहिए.
नीलम (Sapphire)

इसका एक नाम नील कान्त मणि भी है. ब्राज़ील देश से इसकी उत्पत्ती मानी जाती है. भारत में अनंत नाग (काश्मीर) का नीलम उत्तम माना जाता है. यह फास्फोरस एवं ब्रोमिन का यौगिक होता है. यह एक अत्यंत घातक रासायनिक यौगिक है. यह जितने समय में शुभ प्रभाव दिखाता है. उससे सौ गुणा कम समय में अपना अशुभ प्रभाव प्रकट कर देता है. इसकी उत्पत्ती नेल्लोरा हिल (जर्मनी) माना जाता है. पौराणिक मतानुसार एक बार किसी कारण वश हनुमान जी एवं शनि देव में विवाद उत्पन्न हो गया. शनि देव को यह गर्व था कि एक तो वह देव ग्रह है जिसे यज्ञ में अधिकार मिला हुआ है. दूसरे वह हनुमान जी के गुरु एवं उनके आराध्य देव सूर्य के पुत्र है. अतः उनका स्थान हनुमान जी से ऊंचा है. हनुमान जी को इससे कोई नाराजगी नहीं थी. न उन्हें इसका कोई आत्मा हीन भाव ही था. उनके इस सीधापन से शनि देव और ज्यादा चिढ जाते थे. यद्यपि भगवान सूर्य देव इस रहस्य को जानते थे. किन्तु शनि देव को वह इस लिए कुछ नहीं कहते थे कि उनकी पत्नी तथा शनि देव क़ी माता छाया उग्र विवाद खडा कर देती थी. एक बार शनि देव को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने उस राम मंदिर को ही ढहा दिया जिसमें हनुमान जी नित्य ही पूजा करने जाया करते थे. हनुमान जी मंदिर पहुंचे. उनको बहुत दुःख हुआ. उन्होंने जैसे तैसे कर के भगवान क़ी मूर्ती को खडा करना चाहा. शनि देव बोले कि यहाँ मेरे मनोरंजन का कक्ष बनेगा. यहाँ कोई मंदिर नहीं बनेगा. हनुमान जी फिर भी झगड़ा पसंद नहीं किये. उन्होंने भगवान क़ी प्रतिमा उठायी और चलते बने. शनि देव गरज कर बोले कि यहाँ कि कोई भी चीज कही नहीं जायेगी. और उन्होंने प्रतिमा छिनना चाहा. इसी झगड़े में वह प्रतिमी गिर कर टूट गयी. अब हनुमान जी आग बबूला होकर शनिदेव को अपनी पूंछ में लपेट कर पटकना शुरू किया. इतना पटके इतना पटके कि शनिदेव मूर्छित होने लगे. फिर शनिदेव हनुमान जी को रोक कर बोले कि हे हनुमान! मेरी आप से कोई दुश्मनी नहीं है. आप जिस क़ी पूजा करते है. वह मेरा ही वंशज है. मुझे अपने कुल के पूजा और सम्मान प्रदर्शन से भला क्यों विरोध हो सकता है? यह मेरी एक तरह से आप के धैर्य एवं भक्ति क़ी परिक्षा थी. मै आज बहुत ही प्रसन्न हूँ. जो चाहो वर मांग लो. हनुमान जी बोले कि हे शनि देव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो आज के बाद किसी भी प्राणी को किसी तरह क़ी पूजा पाठ में विघ्न न उपस्थित करें. शनिदेव बोले कि ऐसा ही हो. फिर उन्होंने कहा कि इसके अलावा मै एक और वरदान देना चाहता हूँ. जो तुम मांग नहीं सकते. या फिर तुम्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं है. क्योकि तुम एक निःस्पृह भगवान भक्त हो. मै तुम्हे वरदान देता हूँ कि जो भी व्यक्ति तुम्हारी पूजा करेगा उसे मेरे अर्थात शनि क़ी कोई भी पीड़ा नहीं होगी. इधर झगड़े में हनुमान जी क़ी पूंछ से बहुत से बाल टूट कर बिखर गए थे. शनि देव ने कहा कि ये सारे बाल जो मेरे शरीर के काले रंग से रगड़ कर नीले पड़ गए है वे सब शक्ति शाली पत्थर बन जायेगे जो शनि कृत पीड़ा के समूल निवारण में सफल होगे. इस पत्थर का नाम नीलकान्तमणि पडा. जिसे आज नीलम कहा जाता है. यह कथा बालव उपाख्यान में दिया गया है. शुद्ध नीलम के सात गुण होते है. जो नीलम एक सी छाया वाला हो, अपने आकार क़ी तुलना में २१० गुणा भारी हो, चिकना हो, स्वच्छ हो, आकार में पिंड स्वरुप हो, मृदु, दीप्त तथा तेज युक्त हो इन सात गुणों से युक्त नीलम ही शुद्ध होता है. 50 ग्राम गाय के दूध एवं 10 ग्राम फिटकारी के घोल में डालने पर यदि घोल का रंग नीला पड़ जाय वही नीलम अंगूठी में धारण करना चाहिए. यह चिकित्सकीय मतानुसार अर्श (पिल्स) नाशक, बाँझ पण दोष नाशक एवं अर्बुद या संक्रमित विद्रधि या भगंदर क़ी अचूक औषधि है. यह सदा ही दाहिने हाथ क़ी मध्यमा अंगुली में धारण करना चाहिए. किन्तु जिस व्यक्ति के परिवार में कोई भी व्यक्ति दमा (Asthama) का रोगी हो उस परिवार में नीलम किसी को भी धारण नहीं करना चाहिए. बल्कि “गोकर्ण मणि” धारण करनी चाहिए. दाहिने हाथ क़ी बीच वाली बड़ी अंगुली के शिरो पर्व पर जितनी रेखाएं हो उतने ही रत्ती वजन का नीलम होना चाहिए. इसे सदा सोने क़ी ही अंगूठी में धारण करना चाहिए. अश्विनी, भरणी, ज्येष्ठा, अनुराधा, मघा एवं पुनर्वसु नक्षत्र में कभी भी नीलम न धारण करें. अश्विन, फाल्गुन एवं चैत्र महीने में न धारण करें. शनिवार के अलावा किसी भी दिन इसे धारण न करें. यदि कुंडली में शनि चन्द्रमा से बारहवें या दूसरे बैठा हो तो अवशया नीलम धारण करें. यदि राहू या केतु से ग्रस्त शनि हो तो सान्द्र नीलम होना चाहिए. मंगल के कारण शनि दोष युक्त हो तो तनु नीलम धारण करें. सूर्य के कारण शनि दोष युक्त हो तो पालित नीलम धारण करें. यदि कुंडली में शनि के कारण कोई शुभ भाव दूषित हो रहा हो तो नाभ नीलम धारण करें. यही शास्त्र सम्मत है.

Saturday 22 June 2013

मर्यादा पुरूषोत्तम राम और असुर सम्राट रावण की जन्मकुंडली का विश्लेषण

भगवान श्रीराम और असुर सम्राट रावण की जन्म कुंडली में काफी समानताएं होते हुए भी ग्रहों के शुभाशुभ प्रभाव ने दोनों में से एक को मर्यादा पुरूषोत्तम बनाया, जबकि दूसरा [रावण] आसुरी प्रवृत्तियों का पर्याय बनकर बुराई का प्रतीक बन गया।
भगवान राम व असुर सम्राट रावण का जन्म लग्न चर राशि का है। श्रीराम की कुंडली में चारों केंद्रों में उच्च के ग्रह होकर पंच महापुरूष योग का निर्माण कर रहे हैं। बृहस्पति से हंस योग, शनि से शश योग, मंगल से रूचक योग का निर्माण हो रहा है। रावण की कुंडली में भी पंच महापुरूष बन रहे हैं। श्रीराम के पांच ग्रह उच्च के हैं, तो रावण की कुंडली में भी पांच ग्रह उच्च के हैं।

भगवान श्री रामचंद्र जी की  जन्मकुंडली 
लंकापति रावन की जन्मकुंडली

श्रीराम की जन्मकुंडली एवं जीवन चक्र राम का जन्म कर्क लग्न में हुआ था। कर्क लग्न व्यक्ति के सत्कर्मी, निष्कलंक और यशस्वी होने का परिचायक है। कर्क लग्न के साथ-साथ यदि लग्नेश चंद्र भी लग्न में हो, तो जातक समृद्ध, सुसंस्कृत, न्यायप्रिय, सत्यनिष्ठ, क्षमाशील और विद्वान होता है। वह भाग्यशाली तथा जीवन में उच्च स्थान को प्राप्त करने वाला होता है। उसे देश-विदेश में सम्मान की प्राप्ति होती है। कर्क लग्न में चंद्र के साथ गुरु भी इसी भाव में स्थित हो, तो व्यक्ति सत्यनिष्ठ व न्यायप्रिय है और उसका व्यवहार मृदु होता है। कर्क राशि में गुरु के उच्चस्थ होने के कारण जातक जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा बनाये  रखने के लिए कोई भी बलिदान कर सकता है। ऐसा व्यक्ति ऐसी अदृश्य ढाल से युक्त होता है जिसे खरौंच तक भी नहीं लगती। वह आत्म सम्मान को विश्व की सकल संपदा से भी अधिक समझता है। इसी कर्क लग्न में अवतरित भगवान राम में ये सारे गुण विद्यमान थे। इसीलिए वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाए। भगवान राम की कुंडली में मंगल के सप्तम भाव में उच्चस्थ होने के कारण उनका विवाह माता सीता जैसी दिव्य कन्या से हुआ। कुंडली में मंगल स्थित राशि मकर का स्वामी शनि भी उच्चस्थ है तथा शनि स्थित राशि का स्वामी शुक्र भी उच्चस्थ है। शुक्र पत्नी का प्रतिनिधि ग्रह है। अतः भगवान राम का माता सीता जैसी दिव्य कन्या से विवाह होना स्वाभाविक है। भगवान राम की जन्म कुंडली में मंगल सप्तम भाव में होने से मंगलीक है। किंतु उसके उच्च राशिस्थ होने से उसका दोष निष्प्रभावी तो रहा किंतु सप्तम् भाव एवं उसके कारकेश शुक्र पर राहु की दृष्टि और केतु की स्थिति तथा सप्तम् भाव में विध्वंसक मंगल की स्थिति के कारण पत्नी वियोग का दुख झेलना पड़ा। शनि, मंगल व राहु की दशम् भाव एवं सूर्य पर दृष्टि पिता की मृत्यु का कारण बनी। शनि की चतुर्थ भाव में स्थिति और चंद्र एवं चंद्र राशि कर्क पर दृष्टि के कारण माताओं को वैधव्य देखना पड़ा। छोटे भाई का प्रतिनिधि ग्रह मंगल सप्तम् भाव में उच्च का है और उस पर गुरु की दृष्टि है, जिसके फलस्वरूप छोटे भाइयों ने भगवान राम की पत्नी अर्थात माता सीता को माता का आदर दिया। उच्च के ग्रह से हंस योग, शनि से शश योग, मंगल से रुचक योग और चंद्र के लग्न में होने के फलस्वरूप गजकेसरी योग है। गुरु और चंद्र के प्रबल होने के कारण यह गजकेसरी योग अत्यंत प्रबल है। पुनर्वसु के अंतिम चरण में होने से चंद्र स्वक्षेत्री  है। अतः भगवान श्री राम के सामने जो भी कठिनाइयां आईं उनका उन्होंने सफलतापूर्वक सामना किया। पांच ग्रहों के उच्च के होने के कारण भगवान अवतारी पुरुष हुए। चंद्र और लग्न के बली गुरु से प्रभावित होने के कारण भगवान ने मर्यादाओं का पालन किया। महर्षि वाल्मीकी के भगवान राम के जन्मचक्र के वर्णन में राहु, केतु एवं बुध की स्थिति का ज्ञान नहीं होता। किंतु भगवान राम के जीवन चरित्र के अनुसार अनुमान लगाया जा सकता है कि ये ग्रह किस भाव एवं किस राशि में होंगे। भगवान राम अत्यंत प्रतापी हुए। इससे पता चलता है कि उनकी जन्मकुंडली में राहु की स्थिति तृतीय भाव कन्या राशि में होगी क्योंकि तृतीय भाव का राहु जातक को पराक्रमी एवं प्रतापी बनाता हैं। इसके अनुसार केतु नवम् भाव में उच्च के शुक्र से युत है। इसी शुक्र के कारण भगवान राम के पराक्रमी एवं प्रतापी बनने में उनकी पत्नी माता सीता माध्यम एवं कारण बनीं। पंचमेश मंगल के पंचम से तीसरे स्थान पर होने के कारण भगवान राम के पुत्र भी अत्यंत पराक्रमी हुए। बुध एवं शुक्र कभी भी सूर्य से 28 अंश से अधिक दूरी पर नहीं जाते इसलिए दोनों को सूर्य के साथ अथवा इर्द-गिर्द ही माना जाएगा। भगवान राम के जीवन चरित्र के अनुसार शुक्र को नवम् भाव के मीन राशि में होना उपयुक्त माना जाएगा। बुध निर्बल ग्रह है। किंतु बृषभ राशि में होने पर वह निर्बल नहीं रह जाता क्योंकि बृषभ राशि का स्वामी शुक्र बुध का मित्र है जो उच्च राशिस्थ है और जिस राशि में वह है उसका स्वामी गुरु भी लग्न में उच्च राशिस्थ है। यहीं पर ग्रहों की शृंखला समाप्त होती है। इसके अलावा बुध द्वादश भाव का स्वामी है और द्वादश भाव से द्वादश होने के कारण अति बली है। अत्यंत बली बुध की राशि कन्या में राहु की स्थिति ने ही भगवान राम को पराक्रमी बनाया। लग्नेश भाग्येश का योग और उन पर पंचमेश, सप्तमेश और दशमेश की दृष्टि से प्रबल राजयोग बना। उच्च का सुखेश शुक्र भाग्य स्थान में है और उस पर भाग्येश गुरु की दृष्टि है। इन्हीं योगों के कारण भगवान चक्रवर्ती सम्राट बने। चतुर्थेश शुक्र के उच्च होने के कारण भगवान राम सांसारिक हुए। चतुर्थ भाव से शनि की दृष्टि लग्न स्थित गुरु पर होने के कारण वह वैरागी हुए अर्थात् सत्ता  के अधिकारी होते हुए भी वह वैरागी राजा सिद्ध हुए। चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण में है जिसके कारण उनका जन्म गुरु की 16 वर्षों की महादशा में हुआ। पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण में जन्म होन के कारण गुरु की महादशा शेष अधिक से अधिक चार वर्ष रही होगी। तत्पश्चात् शनि की महादशा 19 वर्ष की आई जो 23 वर्ष की आयु तक चली। पुराणों के अनुसार भगवान श्री राम का विवाह 18 वर्ष की आयु में हुआ। उस समय सप्तमेश शनि की महादशा और अंतर्दशा स्वामी गोचर का गुरु सप्तम् स्थान में था। पुराणों के अनुसार 27 वर्ष की आयु में भगवान को चैदह वर्षों का बनवास हुआ और उनके वियोग में उनके पिता महाराज दशरथ का स्वर्गवास हुआ। उस समय भगवान श्री राम बुध की महादशा के प्रभाव में थे। बुध तृतीयेश एवं व्ययेश होने के कारण कष्टकारक था। गोचर में सिंह का शनि दूसरे भाव में था। यह साढ़े साती का अंतिम चरण था। गुरु चंद्रमा से चैथी राशि तुला में था। यह बुध तृतीयेश षष्ठेश पिता के भाव से होकर दूसरे भाव में था। अतः पिता के लिए मारक था और भगवान राम तथा कुटुंब के लिए कष्टकारक था। बुध की दशा में ही सीताहरण हुआ। व्ययेश की दशा में शय्या सुख का नाश होता है और कष्टकारक यात्रा होती है। केतु के नवम् भाव में स्वक्षेत्री होने के कारण लंका विजय करके पुनः अयोध्या के सम्राट बने। जैमिनि ज्योतिष के अनुसार लग्नेश और अष्टमेश यदि चर राशि के होते हैं तो जातक दीर्घायु होता है। भगवान श्री राम का लग्नेश चंद्र चर राशि का है तथा अष्टमेश शनि भी तुला राशि में चर राशि का है। लग्न में गुरु व चंद्र के बली होने के फलस्वरूप भगवान ने अमित आयु प्राप्त की और इसका सदुपयोग भी किया। इस प्रकार ग्रहों की शुभाशुभ स्थिति के फलस्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अनेक कष्ट झेले, रावण जैसे शत्रु पर विजय प्राप्त की और राम राज्य की स्थापना की।


लंकापति रावण की जन्मकुंडली का विश्लेषण - लकापति रावण की कुंडली का विवेचन इस प्रकार है। रावण की जन्म कुंडली में लग्नेश सूर्य के लग्न में स्थित होने तथा नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु के भी लग्न में होने के कारण लग्न अति बलवान था। लग्न बलवान हो, तो व्यक्ति सुखी और समृद्ध होता है। उसका आत्मबल भी उच्च कोटि का था। लग्नस्थ सूर्य पर क्रूर ग्रह मंगल की दृष्टि होने के कारण वह अहंकारी और तानाशाह प्रवत्ति  का था। कुंडली के द्वितीय भाव में लाभेश और धनेश बुध की उसकी अपनी ही स्वयं की राशि में स्थिति के कारण धनयोग का निर्माण हो रहा है। इस कारण वह अतुलित धन सम्पत्ति का स्वामी था। तृतीय भाव का स्वामी शुक्र दशम भाव में है, और यहां उसकी राशि तुला में केतु और स्त्री भाव का स्वामी शनि बैठे हैं। इसी कारण वह बहुत विलासप्रिय रहा होगा। भ्रातृ भाव त्रत्तीय  स्थान प्रथकतावादी ग्रह उच्च का शनि केतु के साथ स्थित है। एक अन्य पृथकतावादी ग्रह है और दूसरा विच्छेदात्मक ग्रह राहु की दृष्टि भ्रातृ भाव पर है। इस कारण रावण को अपने ही भाई विभीषण के विरोध का सामना करना पड़ा और वह उसका शत्रु बन गया। पंचमेश गुरु के पंचम से नवम् भाव में और जन्मकुंडली के लग्न स्थान में स्थित होने तथा लग्न से अपने ही भाव,विद्या , बुद्धि, संतान को पूर्ण दृष्टि से देखने के कारण वह अनेक पुत्रों वाला, विद्यावान, बुद्धिमान और शास्त्रज्ञ था। लग्न में लग्नेश सूर्य और पंचमेश की युति गुरु ने रावण को प्रख्यात ज्योतिषाचार्य बनाया। गुरु की दूसरी राशि अष्टम में होने के कारण तथा अष्टमेश गुरु अष्टम स्थान से षष्ठ स्थान में स्थित है और पंचम भाव पर शनि की दृष्टि है। यह सारी स्थिति अंत में रावण की विद्या-बुद्धि के विनाश कारण बनी। अतः विनाशकाल के समय उसकी बुद्धि विपरीत हो गई थी। भाग्य भाव नवम स्थान में राहु की उपस्थिति के कारण रावण का भाग्य बलवान था। मंगल की राशि मेष में स्थित राहु पर उच्च के शनि की पूर्ण दृष्टि है। इस कारण वह सफल राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ बना तथा इसी योग के कारण उसमें नेतृत्व करने की अपूर्व क्षमता भी थी। नवम् भाव का कारक गुरु है। यह भाव धर्म भाव भी कहलाता है। ऐसे स्थान में पापग्रह राहु के स्थित होने से रावण भगवान् राम का विरोधी था। राज्येश शुक्र के राज्य भाव   दसम  स्थान में होने के कारण रावण का शासन पक्ष बहुत मजबूत था। इसलिए दीर्घकाल तक उसने विशाल राज्य का पूर्ण सुख भोगा। लग्नेश और पंचमेश का युति संबंध भी राज योग का निर्माण करता है। रावण के जन्म चक्र में ग्रहों का राजा सूर्य लग्नेश होकर स्वयं लग्न में पंचमेश गुरु के साथ बैठा है। राशि मकर थी। यह वैश्य राशि है और इसका स्वामी शनि शूद्र वर्ण का ग्रह है। अतः रावण सत्गुणी ब्राह्मण नहीं था। वह रजोगुण प्रधान था। आयु भाव का स्वामी (अष्टमेश) गुरु लग्नेश सूर्य के साथ देह भाव में स्थित है मारकेश बुध मारक भाव में स्थित है। सप्तमेश शनि के पराक्रम भाव में और गुरु के केंद्र स्थान में होने से कक्षा वृद्धि हो रही है। रावण की जन्मकुंडली के लग्न में स्थिर राशि और अष्टम में द्विस्वभाव राशी होने से दीर्घ आयु योग है। कक्ष्या वृद्धि होने के कारण यह परम आयु योग बन गया है। इस योग के कारण ही रावण लगभग 10,000 वर्ष तक जीवित रहा।त्रेतायुग में मनुष्य की अधिकतम आयु दस हजार वर्ष ही थी  रावण के पतन का कारण षष्ठ भाव में चंद्र और मंगल की युति है। षष्ठ भाव को शत्रु स्थान भी कहा जाता है। यहां व्ययेश चंद्र के साथ मंगल स्थित है। सिंह लग्न के लिए मंगल जिस भाव में स्थित होता है, उसकी वृद्धि करता है। चंद्र स्त्री ग्रह है और रावण की कुंडली में व्ययेश भी है, इसलिए एक स्त्री अर्थात सीताजी उसके साम्राज्य के पतन और उसकी मृत्यु का कारण बनीं। शत्रु भाव में मंगल की उच्च राशि मकर तथा अष्टम भाव में गुरु की राशि होने के कारण मर्यादा पुरुषोŸाम भगवान श्रीराम के हाथों रावण की मृत्यु हुई। एक प्रकार से यह ब्रह्म सामीप्य मुक्ति है। राम ने रावण की नाभि में स्थित अमृत में अग्निबाण मारा था। चंद्र अमृत और मंगल अग्नि बाण का प्रतीक है। धनेश के प्रबल त्रिषडायेश होकर कुटुंब भावस्थ होने के कारण धन, कुटुंब, पुत्रादि की हुई। रावण ब्राह्मण था। किंतु ज्योतिष शास्त्र इसे स्वीकार्य नहीं करता क्योंकि सिंह लग्न वाला व्यक्ति रजोगुणी होता है। इस लग्न का स्वामी सूर्य क्षत्रिय वर्ण का है। यदि हम चंद्र राशि के आधार पर देखें तो रावण की राशि मकर थी। यह वैश्य राशि है और इसका स्वामी शनि शूद्र वर्ण का ग्रह है। अतः रावण सत्गुणी ब्राह्मण नहीं था। वह रजोगुण प्रधान था। कब हुआ था रावण का वध गहन अनुसंधान और गणना के अनुसार आज से लगभग 1 करोड़ 81लाख वर्ष पूर्व 24वें महायुग के त्रेता में भगवान श्रीराम ने लंकापति रावण का वध किया था।  इस दिन दस सिर वाले दशानन रावण का वध हुआ था इसलिए इसका नाम दशहरा पड़ा। इस दिन भगवान राम ने भगवती विजया (अपराजिता देवी) का विधिवत् पूजन करके लंका पर विजय प्राप्त की थी। इसलिए इस पर्व का नाम विजयादशमी पड़ा। विजयादशमी के दिन विजया देवी की पूजा होती है। विजया दशमी के दिन जब रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने जा रहे थे उस समय शमी वृक्ष ने उनकी विजय का उद्घोष किया था। समुद्र का पानी मीठा नहीं कर सका लंकेश्वर श्री वाल्मीकि रामायण कालीन पौराणिक इतिहास के अनुसार रावण लगभग दस हजार वर्षों तक जीवित रहा। उसमें अनंत शक्ति, शौर्य, प्रतिभा और ज्ञान था। किंतु उसने इतने दीर्घ जीवनकाल में अपनी असीमित शक्तियों का दुरुपयोग ही किया, मानव कल्याण हेतु उनका कभी सदुपयोग नहीं किया। मरते समय उसे इस बात का बहुत पश्चाताप और दुःख था। मरणासन्न अवस्था में उसने लक्ष्मण जी से कहा था कि वह स्वर्ग जाने हेतु सीढ़ियों का निर्माण करना, स्वर्ण जैसी बहुमूल्य धातु में सुगंध भरना तथा समुद्र के पानी का खारापन दूर करके उसे पीने योग्य बनाना चाहता था। किंतु उसने समय का सदुपयोग नहीं किया इसलिए मेरी ये इच्छाएं अधूरी रह गईं। मध्यप्रदेश के मंदसौर नगर में रावण की ससुराल थी। उसकी पटरानी मन्दोदरी मन्दसौर के राजा की पुत्री थी। इस कारण आज भी मन्दसौर जिले में रावण दहन नहीं किया जाता है। कुछ लोग यहां रावण की पूजा भी करते हैं। रावण ब्राह्मण होने के साथ-साथ शास्त्रों का ज्ञाता भी था। इसके बावजूद उसे हिन्दू धर्म में आदर्श पुरुष नहीं माना गया है। राम का शत्रु होने के कारण वह अपनी ही आत्मा का हनन करने वाला आत्मशत्रु भी था। श्रुति के अनुसार ऐसे व्यक्ति कोब्रह्मसायुज्यमुक्ति नहीं मिलती है।